राजनांदगांव

सतनाम धर्म के अंतरराष्ट्रीय प्रचारक देवदास बंजारे जी

सांस्कृतिक क्षेत्र में सतनामी कलाकारों ने अनेक नाचा दल बनाकर अपनी श्रेष्ठ प्रतिभा के बल पर समाज की कीर्ति को विस्तारित किये हैं। मंगलू साज, दानी दरूवन साज और चम्पा बरसन साज को लोग आज भी याद करते हैं। खड़े साज के भी अनेक दल बने थे। पंथी के क्षेत्र में पारंपरिक पंथी नृत्य के कई कलाकार रहे हैं, जिन्होंने समाज में सतनाम धर्म के प्रति जागरूकता लाने का कार्य किये थे। ऐसे महान विभूतियों के नाम हमारी स्मृति में सदैव के लिए अंकित रहते हैं जिन्होंने अपने – अपने क्षेत्रों में सर्वथा मौलिक कार्य करके समाज में नई चेतना को जागृत करके सामाजिक एकता को सुदृढ़ बनाते रहे हैं। इसी परंपरा में देवदास बंजारे का भी नाम आता है, जिन्होंने पंथी को अपनी मौलिक सूझबूझ के साथ नये रूप में प्रस्तुत करके सबके मन को मोह लिया था। उन्होंने पारंपरिक पंथी नृत्य में नवीन प्रयोग करके युगान्तरकारी कार्य कर दिखाया।

परम पूज्यगुरू बाबा घासीदास के द्वारा सतनाम धर्म स्थापना के बाद के समय पर हम जब गौर करते हैं तो पाते हैं कि इस समाज में हर युग में महान विभूतियों ने जन्म लेकर सतनाम धर्म को विस्तार देने और उसे मजबूती प्रदान करने की दिशा में अपने तन-मन-धन से कार्य सम्पादन किये हैं तथा सतनामी समाज की गौरव-गरिमा को आकाषीय ऊंचाईयों तक पहुंचाने में अप्रतिम योगदान दिये हैं।

गूरू परम्परा में देखें तो गुरू अमरदास जी एवं गुरू बालकदास जी के साथ ही बाद के समस्त गुरूओं ने सतनाम धर्म की रक्षा में अपना सब कुछ न्यौछावर करते रहे हैं। उनकी ही प्रेरणाओं से सतनाम धर्मावलम्बियों के मध्य से ही अनेक महान पुरूषों ने विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करके समाज के विकास में स्मरणीय भूमिका निभाई है।
समाज सेवा , राजनीति, अध्यात्म, संस्कृति, साहित्य और कला के क्षेत्र में उनके योगदान का ऐतिहासिक महत्व है। पिछली सदी में राजमहंत नयनदास महिलांग जी, राजमहंत अंजोरदास जी एवं रतिराम मालगुजार जी के साथ ही अन्य सैकड़ों महंतों के त्याग और तपस्या को कैसे भुलाया जा सकता है।

गुरू अगमदास एवं ममतामयी मिनीमाता जी के द्वारा प्रदत्त संरक्षण और सेवाओं के लिए यह समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा। देश की स्वतंत्रता के बाद अनेक नेताओं ने सक्रिय राजनीति में भाग लेकर समाज हित के अनेक कार्य किये हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में अनेक संत और कडि़हार हुए जिन्होंने धर्म के प्रचार-प्रसार में महती कार्य किये हैं। मनोहरदास नृसिंह और सखादास बघेल सहित सैकड़ों कवियों और लेखकों ने गुरूओ के जीवन चरित्र एवं सतनाम धर्म पर ग्रंथों की रचना करके सतनाम साहित्य के भंडार को समृद्ध करने का पुनीत कार्य किये हैं।
यहां पाठकों की जानकारी के लिये बता दूं कि मैं देवदास जी की कला यात्रा सम्बन्धी दो आलेख पहले भी लिख चुका हूँ। एक छत्तीसगढ़ी में है, जिसका प्रसारण रायपुर आकाशवाणी से हुआ था, जो बाद में सतनाम संदेश पत्रिका में प्रकाशित भी हुआ था। दूसरा आलेख हिन्दी में है जो कि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुका है। उनमें मंै बंजारे के जीवन परिचय एवं उनके पंथी प्रदर्षन की विशेषताओं का उल्लेख कर चुका हूं। इसलिए इस बार सतनाम संदेश पत्रिका के पाठकों की जानकारी हेतु उनसे मुलाकातों पर आधारित संस्मरण प्रस्तुत कर रहा हूं।

देवदास बंजारे जी के नाम लेते ही उनकी संगति के कुछ अवसर चलचित्र की भांति मेरे मनो-मस्तिश्क में गतिमान हो उठते हैं। बंजारे जी जितने ऊंचे दर्जे के कलाकार थे, उतने ही वे सहज-सरल व्यक्ति भी थे। उनके प्यार,मनुहार और स्नेहसिक्त शिकायतों का आस्वाद तो मैने अनेक बार चखा किन्तु उन्हें क्रोधित होते और अहंकार में गरजते कभी नहीं देखा। वे बेहद विनम्र व्यक्ति थे। वे मुझसे उम्र में काफी बड़े थे किन्तु मुझे हमेशा बड़े भाई जैसा सम्मान देते थे।

सन् सत्तर और अस्सी के दसक में देवदास बंजारे के पंथी नृत्य का जादू सब तरफ व्याप्त था। सभी के दिल में उनके लिये प्रसंशा और प्यार का सागर हिलोंरे लेता रहता था। मैने पहली बार किसी सतनामी कलाकार की प्रस्तुतियों की प्रशंसा सभी वर्गों के मुंह से निर्दोश व निष्कपट भाव से होती हुई देखी थी। उनके पंथी प्रदर्शन की रिपोर्टिंग अखबारों में पढ़ता था तथा लोगों के मुंह से उनकी तारीफें सुनता था किन्तु उनसे मेरी व्यक्तिगत जानपहचान और घनिष्ठता सन् 1990 तक नहीं हो पायी थी।

मेरी दिली इच्छा थी कि मेरे समाज के महान कलाकार से मिलूं, उनसे बातचीत करूं और जान पहचान बढाऊं। मैं अवसर की तलाश में रहता था। मेरे मन में यह आशंका भी बनी रहती थी कि – देवदास बंजारे अंतरराष्ट्रीय उनसे मिलने का अवसर मुझे दुर्ग जिला साक्षरता लोक अभियान के दौरान सन् 1991 में मिला। वह अभियान देश का सबसे बड़ा दूसरा साक्षरता लोक अभियान था जो सरकार द्वारा चलाया जा रहा था। ऐसा अभियान उससे पूर्व केरल राज्य के एर्नाकुलम जिले में सफलतापूर्वक सम्पन्न किया जा चुका था। दुर्ग जिले का दूसरे क्रम पर था, जिसमें जिले के समस्त कलाकार और साहित्यकार सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। कार्यषालाओं और संगोष्ठियों का क्रम निरंतर चतलता रहता था। देवदास बंजारे जी भी सभी कार्यक्रमों में भाग लेते थे।

उसी दौरान एक दिन मैने उनसे मिला और अपना परिचय दिया- ‘‘बंजारे जी मैं दादूलाल जोशी हूँ। आपसे रूबरू होने के लिये मै काफी समय से बेताब था। आज आपसे मिल कर बेहद खुशी हो रही है।’’ मेरा इतना कहते ही उन्होंने अपने दोनो हाथ मेरे पैरों की ओर बढ़ा दिये। मैं हतप्रभ होकर तुरंत उन्हें रोका और कहा – ‘‘ये आप क्या कर रहे हैं। बंजारे जी आप मेरे आदरणीय हैं। मुझसे बड़े हैं। उम्र में भी और कला के क्षेत्र में भी। मुझसे गले मिलिये।’’ तब उन्होंने मुझे सीने से लगाते हुए कहा – ‘‘जोशी भैया! आप बड़े साहित्यकार हैं। आपके नाम की चर्चा कई वर्षों से सुनता रहा हूँ। दल्लीराजहरा में तो आपके नाम का डंका बजता था। मैं सोचता था, आप काफी बुजुर्ग व्यक्ति होंगे।’’

मैंने हंसते हुए जवाब दिया -‘‘बंजारे जी मैं सचमुच बड़ा साहित्यकार नहीं हूं। थोड़ा – मोड़ा लिखने का प्रयास करता रहता हूँ। आप लोगों के प्यार और मान ने मेरे नाम को चर्चित कर दिया है। मैं तो आपके सामने कुछ भी नहीं हूं।’’

‘‘अरे नही न भैया ।’’ ऐसा कर उन्होंने मेरे हाथ को पकड़े हुए कार्यक्रम स्थल के प्रांगण में रखी कुर्सी की तरफ ले गये। हम दोनों वहाँ पर बैठ कर काफी देर तक बातचीत करते रहें। उसके बाद अनेक कार्यक्रमों में हम दोनों मिलते और आपस में कला, साहित्य और समाज के बारे में बातचीत करते थे lअधिकांश बातें मैं उनके दल की विदेश – यात्रा के बारे में करता था। उन्होंने विदेषों में पंथी प्रदर्शन केे दौरान घटित अनेक रोचक घटनाओं के बारे में बताया था।

जब उनका दल पंथी कार्यक्रम प्रस्तुत करता था तब सैकड़ों विदेशी दर्शक मदमस्त होकर झूमने और नाचने लगते थे। नृत्य समाप्त कर जैसे ही नीचे उतरते थे तो युवक युवतियाँ उनके षरीर को छू कर देखते थे कि कहीं ये रबर के पुतले तो नहीं हैं? क्योंकि जिस तेजी से वे नृत्य करते थे और पलक झपकते अपनी स्थिति को बदल लेते थे, वह सब अदभुत होते थे। कई दर्शक उससे भवावेश में लिपट जाते थे। उन्होंने बताया था कि वे विश्व के लगभग 64 देशों के सैकड़ों स्थानों में पंथी नृत्य का प्रदर्षन किये थे। जिनमें फ्रांस, इंग्लैण्ड और रूस समेत यूरोप के अनेक देष सामिल थे।

इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि देवदास बंजारे जी सतनाम धर्म के अंतरराष्ट्रीय प्रचारक थे। उन्होंने अपनी कला के माध्यम से सतनाम दर्शन और गुरू बाबा घासीदास के नाम को विश्व में बगराने का पुनीत कार्य किया था। विश्व में गुरू घासीदास के नाम और उनके सतनाम संस्कृति को प्रचारित करने का काम दो तरह से हुआ था। एक तो अंग्रेज अधिकारियों ने अपने गजेटियरों में उल्लेख करके किया। उनके द्वारा लिखित गजेटियर की कापियाँ पूरे अंग्रेज शासित देषों के लाइब्रेरियों में जाती थी।

इस तरह अनेक देषों में उनके दस्तावेज गये और विष्व ने गुरूबाबा और उनके सतनाम दर्शन को जाना – पहचाना। दूसरे देवदास बंजारे थे, जिन्होंने स्वयं अपनी कला के माध्यम से रोचक ढंग से प्रचारित किया। उन्होंने एक दिन कहा था – ‘‘जोशी भैया ! मेरी दिली इच्छा है कि मेरा प्राण पंथी नाचते हुए ही निकले। पंथी मेरे लिये सब कुछ है।’’
जैसा कि आम तौर होता है हर महान व्यक्तित्व पर समय -समय पर अनेक तरह के आरोप भी लगाये जाते रहे हैं। देवदास बंजारे भी इससे अछूते नहीं रहे। कुछ परेशानियों का उन्हें भी सामना करना पड़ा था किन्तु उनमें चालाकी, कुटिलता और बेइमानी नहीं थी। उन्होंने जो भी कठिनाईयां झेली वे सब उनके अतिषय भोलेपन के कारण थी। जो भी हो देवदास बंजारे जी एक महान कलाकार थे। समाज के गौरव थे। उनके ऐतिहासिक योगदान को कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
उनके द्वारा गाये जाने वाला एक दार्शनिक भावों से युक्त गीत है –
ये माटी के काया, ये माटी के चोला,
के दिन रहिबे बता दे मोला।।
इस गीत को गाते हुए बंजारे जी बिधुन होकर नाचते थे। परन्तु उन्हें भी पता नहीं था कि उनकी काया कितने दिनों तक धरती पर रहेगी। माटी के चोला ने उसे कभी बताया भी तो नहीं था कि वह कितने दिनों तक साथ रहेगा। और…. एक दिन उसकी काया अचानक छोड़ कर पंचतत्व में विलीन हो गई। बंजारे जी सबका दुलारा अद्वितीय पंथी कलाकार थे। सतनामी समाज के सच्चे सपूत थे। छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र थे। वह दुर्लभ व्यक्तित्व थे। आज वे हमारे बीच नहीं है। उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर मैं अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

हरीश सोनवानी की रिपोर्ट

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