” नज़र से नज़रिया बनने तक “
‘नज़र’ तो सबके पास होती हैं साहेब,
पर “नज़रिया” किसी किसी के पास
इसीलिए शायद किसी ने कहा है और सच ही कहा है कि —
नज़र का असर तो सिर्फ ‘उस’ तक गया
और नज़रिए का असर उसके घर तक गया ।
कोई नज़रों से महान नहीं होता है साहेब
नज़रिए से महान होता है,
शायद यही वो कारण है
जो बिना देखे ही
किसी शख़्स की तारीफ़ करने पर मजबूर कर देती है,
गुनाह नज़रों का होता है
और लोग उसे उसकी नज़रिया बना देते हैं
पर सच तो यह है कि —
नज़रों का ऑपरेशन किया जा सकता है लेकिन नज़रिए का नहीं,
फिर भी आज लोग सिर्फ अपनी नज़र ही बदलना चाहते हैं
नज़रिया नहीं,
यही कारण है कि लोग आज भी अपने “गुमान” के शिकार हैं “स्वाभिमान” के कायल नहीं।
नज़र एक अस्त्र है जिससे सामने रह कर लड़ा जाता है
पर नज़रिया तो एक शस्त्र है जिससे दूर रह कर भी वार किया जाता है
और शास्त्र भी है जिसे पढ़ा जाता है तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुकरण भी किया जाता है ।
अक्सर हमने देखा है कि नज़र वाले अपनी नज़रिया छुपाते फिरते हैं
और नज़रिए के धनी लोग अपने नजारे दिखाते हैं,
नज़र वालों ने बड़े शौक़ से एक नज़रिया पाल रक्खे हैं
कि – नज़र अंदाज किया जाए नज़रिए वालों को
और सर पे बिठा के रक्खा जाए नज़र वालों को,
साथियों उनकी इस नज़रिए से एक बात तो साफ़ ज़ाहिर होता है कि
नज़रों की कमी से “भक्त” पैदा होते हैं
और नज़रिए की कमी से “अंधभक्त” ।
नज़रों के शिकार शायद बच भी जाए
पर नज़रिए के शिकार पीढ़ी–दर–पीढ़ी गुलाम होते हैं।
शायद इसी बात को भांप गए थे बाबा साहब
और जाहीर किया अपना अरमान
समता-स्वतंत्रता-न्याय-बंधुता जन-जन को मिले एक समान।
मुझे आज भी याद आता है यकीनन वो घड़ी
जब बाबा साहेब ने देश के नागरिकों के लिए हीरो बनाकर “भारत का संविधान” लिखकर एक नज़रिया पेश किया,
पर नज़र वालों ने उसे ताक पे रख कर और जीरो को हीरो बना कर अब तक ऐश किया ।
अब तो जागो ऐ वतन के शाही परिंदों,
नजरों के दोष दूर करो और अपनी नजरिए भी बदल डालो,
क्योंकि संघर्ष बिन रास्ते आसान नहीं होते
और बिन संघर्ष के जीवन महान नही होते ।
(शाही परिंदों = मूल निवासी लोग)
(एक स्वतंत्र चिंतन सुनील भारद्वाज की कलम से)
सुनील भारद्वाज
7000150900